ओ मेरे परदेसी बेटे
बतलाओ कब घर आओगे
दिन- रात नहीं कटते तुम
कब तक यूँ ही तरसाओगे
जब से तुम परदेस गए हो
घर लगता है वीराना
न कोई हंसने बोलने वाला
न हाल-ए-दिल समझने वाला
अब तो बहुत ही साल हुए हैं
तुम्हारी माँ के हाल बुरे हैं
फ़ोन भी तुमको बहुत किये हैं
पर तुमने न उत्तर दिये हैं
भेज रहा हूँ अब ये ख़त
करता हूँ हालत बयां अपनी
एक बार तो आकर के देखो
पहले हम थे क्या अब क्या हुए हैं
कैसी है यह तुम्हारी नौकरी
मिलने के लिए भी वक़्त नहीं
हमने भी तो था संभाला
कैसे अच्छे से घर- बाहर को
अब पोते-बहू से मिलने को
ये जिया बहुत ललचाता है
हम आने में हैं असमर्थ
क्यों समझ तुम्हे नहीं आता है
त्यौहारों में रौनक नहीं है
मिठाई से मिठास गयी है
हर तरफ जलती हैं बत्तियां
पर घर का चिराग दिखता नहीं है
बढ़ गयी है माँ की बीमारी
ऑपरेशन करवाने की सलाह मिली
पर कांपते हैं हांथ-पैर अब मेरे
कैसे अकेले संभालू मैं ये सभी
कहती है बुलवा दो लाडला
एक बार लगा लूं गले उसे
फिर न जाने क्या हो जाये
डोर सांस की लगे टूटे
तुम को ऊँचा उठाने को
हमने न कोई कसर रखी
पर इतना ऊँचा उठ गए
सब भूल गये यादें घर की
राजा तो तुम बन गए
पर खो गया कहीं बेटा
ओ मेरे परदेसी बेटे
ज़रा वापस आ
ज़रा वापस आ
ज़रा वापस आ
अर्चना
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 12 अप्रैल 2017 को लिंक की गई है...............http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंवर्तमान में शून्य हुई संवेदनायें ,अच्छा वर्णन ,आभार।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद दिग्विजयजी और ध्रुवजी
जवाब देंहटाएंसुन्दर भावपूर्ण रचना अर्चना जी।
जवाब देंहटाएंवाह्ह्...संवेदनहीन हुई भावनाओं के संवेदना से परिपूर्ण रचना अर्चना जी।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना।👌👌👌
कविता सराहने के लिए सभी मित्रों का आभार
जवाब देंहटाएंएकल परिवार हमारे बड़े -बुड़ों के लिए अभिशाप बन गए हैं।
जवाब देंहटाएंhttp://savanxxx.blogspot.in
धन्यवाद सावन जी
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