कविता "धरती"







धरती


अब और कहाँ जाना है, अब और क्या पाना है

बहुत छू लिया आसमान, अब धरती को बचाना है


जब आये थे दुनिया में तो, चारों तरफ थी हरियाली

न कोई गम से रोता था, भरीं थी खाने की थाली


धीरे- धीरे हमने सीखा, नयी- नयी तकनीकों को

प्रतिदिन हमने दिया घटा, पर्यावरण के अवयवों को


काट दिये वन सारे हमने ,औद्द्योगिकरण  बढ़ाने को

पर कुछ भी नहीं किया, पृथ्वी का संतुलन बचाने को  


पर अब हम सब बहुत दुखी हैं, शुद्ध हवा अब बची नहीं है

कहीं सूखा ,कहीं है बाढ़ ,कहीं है भूकंप और सूनामी


यारों अब तुम ठहर भी जाओ ,होड़ की दौड़ को भूल भी जाओ

मत करो पृथ्वी पर नित-दिन, हानिकारक सब आविष्कारों को


आओ मिलकर हमसब ठाने, पर्यावरण के मोल को जाने

क्यों न धरती पर ले आयें, पहले जैसे दिन वो सुहाने


बच्चे –बूढ़े और जवान, चालू कर दें अब यह काम

गंदगी को ख़त्म करें ,और जगह –जगह पर पेड़ लगायें


कुछ ऐसा कर जाना है ,हाँ सबको समझाना है

बहुत छू लिया आसमान, अब धरती को बचाना है

अर्चना








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