ऊँचा उड़ने की चाह
"निम्न कविता में मैंने एक औरत के मन के विचार प्रकट किये हैं |"
पास मेरे है सब कुछ
फिर भी कुछ कमी है
कई दिनों से नींद भी
आँखों से खो गयी है
लगने लगा है बस जिंदगी
क्यों चार दीवारी में सिमट गयी है
अब तो मन ने फिर से
ऊँचा उड़ने की चाह की है
प्रीतम को हौंसला दिया
बच्चों को आँचल की छाया
बुजुर्गों की लाठी बनी जब
नाज़ुक समय था आया
कदम तो उठाया है
मीलों भी चलना चाहूँ
अब तो मन ने फिर से
ऊँचा उड़ने की चाह की है
रिश्तों को भी संभाला है
दीवारों को भी सजाया है
फिर भी नाम अपना
एक गृहणी बस है पाया
चाहत अब यह है मेरी
कि बड़ा नाम मैं कमाऊँ
अब तो मन ने फिर से
ऊँचा उड़ने की चाह की है
दिल की अब यही आरजू
और यही तमन्ना है
कि काश मैं बना पाऊं
अपनी एक पहचान को
इस बार दुआ में यही
रब से तो माँग की है
अब तो मन ने फिर से
ऊँचा उड़ने की चाह की है
अब है मैंने ठाना
और ये प्रण की है
गुमनामियों में अब तो
मैं ना कतई जियुंगी
अपने लिए भी कुछ पल
वक़्त से मैं छीन लूँगी
लगा के आशाओं के पर
सफलता को अब छूऊँगी
सोचा है जितना मन ने
उससे भी ऊँचा उडूँगी
मैं बहुत ऊँचा उडूँगी
हाँ , मैं बहुत ऊँचा उडूँगी