कविता " मैं अपने भारत देश को "


मैं अपने भारत देश को



"इस कविता में एक पिता अपने परदेसी बेटे के साथ जाने को मना करता है और अपनी जन्मभूमि का इस तरह गुणगान करता है"


मैं अपने भारत देश को
कहीं छोड़ के ना 
जा पाऊंगा
यहाँ की मिटटी की
खुशबू को 
शायद ही 
कहीं पाऊंगा
यहाँ की बोली
यहाँ की भाषा
सब  को अपने
पास बुलाती
कदम-कदम पर
बजती घंटियाँ
मन को हैं
हर्षित कर जाती
बड़ों का होता
बहुत ही आदर
छोटों की 
चलती मनमानी
माँयें घर में
सुबह -सुबह से 
ॐ जय जगदीश 
ये आरती गातीं
यहाँ के खाने की
बात निराली
बिन मिष्ठान 
सजती नहीं थाली
चटनी और अचार
जब हों तो
देखकर मुँह में
आ जाता पानी
मेला लगता
जगह-जगह पर
कभी होती ईद
कभी होती दिवाली
सब धर्मों को 
सम्मान मिला है
स्वर्ण मंदिर और जामा 
मस्जिद भी यहाँ हैं
मेरे वतन के
जैसी देखो
कहीं और यह बात
कहाँ है
इस धरती पर
ही चाहूँ मेरी
अंतिम सांसे 
भी कट जातीं
और मुझको 
गंगा मैया 
अपनी गोद में
 लेकर सुलातीं
(अर्चना)



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