कविता " आदमी "


 आदमी



शहर की इस भीड़ में
अकेला हो गया है आदमी
ना जाने के कौन सी
दुनिया में गुम हो
 गया है आदमी
गाड़ी बंगला हर सुख पास
फिर भी जाने क्यूं है उदास
ना घर ना बच्चों के लिए
अब थोड़ी भी फुर्सत बची
ना जाने के कौन सी
दुनिया में गुम हो
 गया है आदमी
सुबह-शाम बस एक ही राग
 औरों से आगे का ख्याव
पाकर के भी शौहरत घनी
फिर भी लगे इसको कमी
ना जाने के कौन सी
दुनिया में गुम हो
 गया है आदमी
खुली हवा को भूल गया है
बस दवा पर ही जिंदा है
क्लाइंट के संग पी विस्की
कहता बिजनेस में है ज़रूरी
ना जाने के कौन सी
दुनिया में गुम हो
 गया है आदमी
फोनों में सब ऐप् भरे है
फेसबुक व्हाटसअप याद रखे है
परिवार के प्रति दायित्वों की
दिन-प्रतिदिन देता बलि
ना जाने के कौन सी
दुनिया में गुम हो
 गया है आदमी
साँसे तो हैं चल रहीं
पर नहीं दिखते हैं भाव सभी
इंसान तो अब कम लगे है
बन चुका चलती- फिरती मशीन
ना जाने के कौन सी
दुनिया में गुम हो
 गया है आदमी

अर्चना

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