कविता " प्रभु "


प्रभु 

प्रभु चरणों में मस्तक रख दो
तन मन धन सब अर्पण कर दो
वो थामेंगे हाथ तुम्हारा
सब जीवों का हैं जो सहारा 

जल में थल में और अम्बर में
उन्होंने ही एक एक को संभाला
बिना स्वार्थ के प्रेम हैं करते
उनका है कण -कण में ठिकाना

आ जाते हैं रूप किसी भी 
जब भी किसी ने उनको पुकारा
महिमा न कोई जान सका
बस देते हैं छोटा सा इशारा

समझ न आये कैसे उसने
ऊँचे -ऊँचे पर्वतों को संभाला
और दी पृथ्वी को भी ताकत
सहनशील कैसे है बनाया

अर्चना

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