कविता "वर्षा "



वर्षा तुम आ जाओ ना
जीवन  फिर चहकाओ ना
तुम बिन व्याकुल हुए सभी जन
अब तुम मान भी जाओ ना
तुम बिन सूखी हुई है नदिया
और फटा धरती का सीना
पशु -पक्षी और मानव जाति
तड़प रहे सब भाँति-भाँति
चेहरों पर मुस्कान नही है
छाते का अब काम नही है
कैसे बच्चे नाव चलायें
बारिश का जब नाम नही है
कोयल भी चुप बैठ गई है
मिट्टी से अब महक गई है
ना नाचे है कोई मयूरा
छम-छम सी जो तान नही है
तुम बिन ना लहरायें फसलें
बिन सावन के कैसे झूले
तालों में ना होगा पानी
मर जायेगी मछली रानी
हम सब तुम से आस लगायें
आओ तुम ये खेर मनायें
इस धरती पर आकर फिर से
खुशियों को ऊपजाओ ना
वर्षा तुम आ जाओ ना
जीवन  फिर चहकाओ ना
तुम बिन व्याकुल हुए सभी जन
अब तुम मान भी जाओ ना


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