कविता "नशा "


नशा 

यारों कुछ  हिम्मत तो दिखाओ
नशे को छोड़ो संभल भी जाओ
जीवन होता है अनमोल 
 इसको ऐसे ही ना गवाओ

क्या पाया है इस  नशे में
खिल्ली उड़ती घर बाहर में
यही परिवार को संभालने का समय 
पांव तुम्हारे खुद ही न संभल पायें

संतानों को क्या दोगे
यही आदतें ही पाओगे 
पिता होता है एक हीरो 
क्या तुम ऐसे बन पाओगे 

नौकरी में भी मज़ा कहां है 
भेदभाव जो सबने किया है 
गर  छोड़ोगे नशे की बेड़ी 
सबमें शामिल हो जाओगे 

ना जाने कितनी ही बीमारी 
पापी नशे ने हैं दे डाली 
अब तो बस हड्डी बची हैंं
चली गई काया थी सुहानी 


घर की वो सारी मुस्काने
बेटा पति बाप तुम्हे माने
छिन जायेंगी वो सब सारी 
कौन उठायेगा जिम्मेदारी 

अभी जो थोड़ा व़क्त बचा है 
क्यों नही तुमने सोचा हैंं
कोशिश थोड़ी कर के देखो
 घुटकर  जीना क्या जीना है 

नशा तो होता है इक दुश्मन 
लड़ो भगाओ दिखाओ पराक्रम 
जीत जो पायें ये आत्मरण 
बनते हैंं असली बाजीग़र 



अर्चना

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