कविता"मीत कल के"

मीत कल के

रास्ते में 
चलते- चलते
टकराये वो जो
मीत थे कल के
पहचान कर भी
न पलट के देखा 
कभी जो न रह पाते
बिन देखे
मेरा चेहरा
हँसते थे
हम मिलते थे
फूलों की तरह
हम खिलते थे
घर से लेकर
कोई बहाना
मेरा उनसे 
मिलने आना
कभी जो देर से 
पहुंचुं तो उनका 
आग बबूला हो जाना
फिर जो माफ़ी
 मांग लूं तो
उनका बहुत से
किस्से सुनाना
मैं तो दे बैठा
था उनको 
अपने तन- मन 
दिल और जान
पर एक बात
थी छोटी सी
जिसको सका
कभी न जान
ऊँचे घर में
रहने वाली
क्या जीवन भर
साथ निभाएगी
जान के मैं हूँ
साधारण घर का
क्या वो संग
टिक पायेगी
मगर वही हो
गया दोस्तों
जो न सोचा था
खावों में
एक अमीर लड़के
ने आके 
खेला मेरे
जज्बातों से
झूठी निकलीं
 कसमें सारी
और वादे भी टूट गए
डगर हई 
थोड़ी सी मुश्किल 
तो हमराही 
रूठ गए 
पैसा पड़ा 
प्यार पर भारी
छूटी मेरे 
यार की यारी
चली गयी
अलविदा कह के 
वो जो थी
महबूबा प्यारी
वो तो रह
गए यादें बनके


रास्ते में 
चलते- चलते

अर्चना

2 टिप्‍पणियां: