कविता"आम आदमी "


आम आदमी 


सोचता कुछ पल निकालुं फुर्सत के
और कहीं चला जाऊँ इस भीड़ से
रोज की आपाधापी नया नही जीवन में
आफिस में बोस, घर की टेंशन
हुआ दर्द  मेरे सर में
लगता है कि हूँ मशीन
चला जा रहा बिन रुके
मशीन भी रूक जाती
जो भार ज्यादा पड़े
बात ये सभी नही हैं मानते
पूरी करता हूँ सबकी फरमाइशें
जाने कब खाई रोटी मां के हाथ से
और कब खेला था बच्चों के साथ में
उम्र तो ढलने लगी जिम्मेदारियाँ बढने
दवाई फीस और महँगाई बाप रे
काश होती जादू की छड़ी मेरे पास में
लाइफ होती हैप्पी जो मैं देखूँ ख्याव में
जो मैं देखूँ ख्याव में

अर्चना

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