कविता"वो मंजर"

वो मंजर

देख कर के वो मंजर
दिल दहल गया मेरा
उनका क्या हाल होगा
कोई अपना बिछड़ा होगा
स्टेशन पर जब चढ़ा मैं
तो ठीक माहौल था सारा
एक हुआ बिस्फोट जोर से
और बदल गया नज़ारा
एक पल के लिए तो
 बस छा गया सन्नाटा
बाद में जो शोर हुआ वो
  रुका  किसी कीमत पे
कुछ लोग तड़प रहे
कुछ मरे पड़े हुए
कुछ  औरों को देख 
रोये फूट -फूट के
देखा एक लाश पड़ी
किसी जवान लड़के की
हाथ में जली- फुकी  किताबें
कुछ ललक होगी  बनने की
एक बुजुर्ग महिला भी
पड़ी हुई बेसुध सी
खून में थी लहुलूहान
कुछ तस्वीर पर्स में उसके
शायद जाना था
मिलने अपने बच्चों से
पर रह गयी यह आस
मन ही मन में
एक था बांका युवक
साथ अटैची उसके
मेहँदी अभी हटी नहीं
हाथों पर से उसके
शायद लेने चला था
अपनी वो सजनी को
पर रह गया सफ़र उसका
 आखिरी सफ़र बन के
एक कोने में दिखी 
मुझे बच्ची रोती-बिलखती
माँ को थी वो हिला रही
पर माँ सुने न उसकी 
और न जाने कितनी लाशें
फैली हुई थीं इधर -उधर
एक आंधी सी आई और
और उजड़ गए कितने ही घर
इन मासूमों ने क्या बिगाड़ा
ये समझ नहीं आता है
ये सब करने वालों का 
क्यूं दिल नहीं घबराता 
इस अनर्थ से क्या मिलता 
कुछ टुकड़े कागज़ के
क्या पैसों से ही तुलते हैं
प्राण हजारों जन के







अर्चना

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें