कविता "जीवन"

जीवन

जीवन तो है पतंग के जैसा
रंग-बिरंगा कैसा-कैसा
कैसा-कैसा
कभी तो भरता ऊँची उड़ान
और कभी जमीं पे पांव
जमीं पे पांव
दाँये जाए बाँये जाए
सफलता पर बहुत इतराए
बहुत इतराए
और कभी शत्रु  के पेंचों में
ये फँस जाये
ये फँस जाये
अगर डोर हो इसकी पेनी
तो दुश्मन की शामत होनी
शामत होनी
जो न डाले समय पर ढील 
तो बिखरे-टूटे होए छिं-छिंण
होए छिं-छिंण
कभी-कभी तो उलझनों की 
शाखाओं में ये फँस जाता
ये फँस जाता
तो कभी हवाओं के संग
हाथ मिलाता 
हाथ मिलाता
कभी-कभी तो ये है
उड़ते-उड़ते थक सा जाता
थक सा जाता
मगर जो फिर से उठकर
दम भर पाता
दम भर पाता
असमान पर वो ही अपना 
परचम लहराता
परचम लहराता 

अर्चना






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