कविता " पैसा "


पैसा 

                                                          ऐसा- वैसा जाने कैसा
समझ ना आये है ये पैसा 
ज्यादा हो तो सँभल ना पाता 
कम होता तो बहुत रुलाता 
जग में उनका नाम कराता
जिनके पास बहुत यह आता
पर दुश्मन भी बहुत बनाता 
जलन- ईष्या संग है लाता
रात को उसको नींद ना आये
जिसने काले धन हैं कमाये
इक मजदूर  दिन- रात  पसीना 
इसे कमाने को ही बहाये
पैसे के प्रति लोभ से 
घर का बँटवारा हो जाता
अधिक मात्रा में यह पैसा
बच्चों को कुमार्ग  चलाता 
इसे कमाने को इंसान  
सब रिश्तों से दूर है जाता
जरुरत इसकी सर्वोपरि 
बिन इसके कुछ भी न हो पाता
कोई लक्ष्मी कह पूजा करता
कोई हाँथो का मेल बताता
क्यों नहीं सभी को यह 
समान रूप में मिल जाता
क्यों कोई अय्याशी पर फूँकता
और क्यों कोई  इस बिन भूखा मर जाता
                                      ऐसा- वैसा जाने कैसा
समझ ना आये है ये पैसा 

अर्चना

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