कविता"अहंकार"


अहंकार

अहंकार जो मन में आये
अपने संग विनाश को लाये
बुद्धि को ये भ्रष्ट है करता
न अपना पराया दिखता
अहंकार का नशा बुरा है
सुध क्या बुध भी भुला दिया है
नहीं किसी की बात समझता
बाद में फिर पछ्ताता फिरता
काया-माया पर इतराता
अंत में कुछ भी हाथ न आता
चाहे कोई हो बुद्धिमान
या बड़े से बड़ा इंसान
जिस के सर पर ये चढ़ा है
आसमान से जमीं पर गिरा है
अहंकार  रावण में भरा था
नाश हुआ सबने देखा था
अहंकार तुम कभी न करना
वरना पड़ेगा हाथ ही मलना

अर्चना

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें