कविता " माँ- बाबा "

माँ- बाबा



 माँ ने मुझे था झूला झुलाया
 बाबा ने काँधे पे मेला दिखाया
 काटी थीं दोनो ने जग- जग के रातें
 मेरे लिए लाखों सपने सजाते
 छोटी सी उफ पर भी वो दौड़े आते
 अपने वो सारे थे गम़ भूल जाते
 गुड़िया खिलौने वो चुन- चुन के लाते
 मेरी हँसी संग थे वो झूम जाते
आती थी बारिश तो खुद भीग जाते
मुझको तो छाते के नीचे छुपाते
 चाहें वो खुद हों कितने परेशान
 पर न मुझे थे कभी भी जताते
 मुश्किल है लफ्जों में कहना
 माँ- बाबा का सारा प्यार

अर्चना

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