कविता" हाँ तुमने सही कहा था माँ"




हाँ तुमने सही कहा था माँ
हाँ तुमने सच ही कहा था माँ

लेकिन मैं ही था नादान 
शायद मैं ही था अंजान
इस दुनिया के इंसानों से
मुखोटे पहने हुए हैवानो से

कि कुछ ऐसे गलत लोग 
तेरे जीवन में भी आयेंगे
फिर अपनी चिकनी-चुपड़ी
बातों से तुम्हे भ्रमित करवायेंगे


बस तुम रहना इनसे बहुत ही
सावधान देना सिर्फ अपनी पढाई
पर ध्यान वर्ना तो तुम खो
दोगे अपने अस्तित्व की पहचान

पर माँ मैंने तुम्हारी न एक सुनी
करता  रहा बस अपनी मर्जी झूठे
मित्रों पर किया विश्वास  फिर
तो वो ही सब हो गया जो 
स्वप्न में भी ना था मैंने सोचा

अब दूसरे मित्रों को देखता हूँ
तो बहुत मन में पछताता हूँ
कोई बन गया है डॉक्टर तो 
कोई बहुत बड़ा अफसर 

लेकिन मुझे ना कोई पथ मिला
मैं ही भटकुं बस इधर -उधर
अब तुम्हारी बातें याद आती है
मन में कई सवाल उठाती हैं

क्यों मैंने न कहा तेरा माना
क्यों बन के रह गया बेचारा
अब तो बस मैं सबसे ये कहूँ
ना ऐसे मित्रों पर विश्वास करो

जो आंधी की तरह आते है 
सब कुछ तबाह कर जाते है
तुम सब भी इतना याद रखो
 माँ की दी सीखों का ध्यान रखो



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"चल रे सखी हम ब्रज को जाएँ"






  










4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी रचना 8-06-2017 को प्रकाशित होने वाले अंक में लिंक की गई है। चर्चा के लिए आप सादर आमंत्रित हैं। http://halchalwit 5 inks.blogspot.com

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  2. लेकिन मुझे ना कोई पथ मिला
    मैं ही भटकुं बस इधर -उधर
    अब तुम्हारी बातें याद आती है
    मन में कई सवाल उठाती हैं
    बहुत ख़ूब ! आदरणीय जीवन का सही अर्थ बताती आपकी सुन्दर व विचारणीय रचना एवं माँ का सार्थक सन्देश ! आभार। "एकलव्य"

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  3. धन्यवाद यादवजी एवं सिंहजी

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