बाबुल पर कविता "बाबुल तेरे घर का अंगनारा"
बाबुल तेरे
घर का अंगनारा
लगता है
जहाँ से प्यारा
आँखें अब भी
नम हो जातीं
जब होता है
छोड़ कर के आना
वो माँ के हाँथ से
सर की मालिश करवाना
वो दादी की गोद में
सब गम भुला लेट जाना
वो भाई का अनोखे
मुंह बना के चिढ़ाना
कैसे पंख लगा के
उड़ गया वो जमाना
आँखें अब भी
नम हो जातीं
जब होता है
छोड़ कर के आना
बाबुल तेरे
घर का अंगनारा
लगता है
जहाँ से प्यारा
वो दरवाज़ों खिडकियों
का मुझको तकते जाना
वो घर की चिड़ियों का
मुझे देखकर चेह्चहाना
कुछ और दिन मैं
चाहूँ यहाँ पर बिता दूँ
मन चाहता दुबारा
उस बचपन को पाना
आँखें अब भी
नम हो जातीं
जब होता है
छोड़ कर के आना
बाबुल तेरे
घर का अंगनारा
लगता है
जहाँ से प्यारा
क्या लगती थी बगल के
चाचा की मलाईदार कुल्फी
वो जीभर के समोसे
और जलेबियों को खाना
वो पापा के संग में
बाज़ार को जाना
जो भी जी को को भाजाता
उसे लेकर के आना
आँखें अब भी
नम हो जातीं
जब होता है
छोड़ कर के आना
बाबुल तेरे
घर का अंगनारा
लगता है
जहाँ से प्यारा
वो करना चांहे
जितनी भी बदमाशी
कभी -कभी हल्की सी
फटकार भी खा जाना
कितनी प्यारी हैं बचपन
की खट्टी मिट्ठी यादें
वो भाभी से रूठना
और फिर पल में मान जाना
आँखें अब भी
नम हो जातीं
जब होता है
छोड़ कर के आना
बाबुल तेरे
घर का अंगनारा
लगता है
जहाँ से प्यारा
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बचपन के बीते दिन हमेशा मन के किसी कोने में बंद रहते हैं जो जाग उठते हैं इसी ही पंक्तियों से ... भावपूर्ण रचना ...
जवाब देंहटाएंहाँ, यादे ही साथ-साथ चलती है।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना..
आभार, आप दोनों मिर्त्रों का |
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