मिलते वो दीवानें
लैला मजनू के
किस्से पुराने
नाम रह गया
बस इश्क का
अब कोई प्यार को
क्या जाने
तुलने लगी हैं
मोहब्बतें
अब पैसे के
बाजार में
दिल की ना
समझे कोई
चाहें कोई कितना
प्यार दे
पाक़ होती थीं
वो मोहब्बत
झूठ की ना
थी इजाज़त
अब तो दगाऐं
खाने लगें हैं
यार अपने
प्यार से
प्यार को ही
तो खुदा
वो थे
अपना मानते
अब तो हद
ये हो गयी
कि हम
डरने लगे हैं
प्यार से
आज हर बात के मायने बदल रहे हैं तो प्यार के मायने क्यों न बदलें ... इसी समाज के मंथन से फिर दुबारा नए मायने बनेंगे ... प्रेम के ... अच्छी रचना है ...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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