प्रकृति के विकट रूप पर कविता "ये कैसी आफत आई है "
दोस्तों हम सब आज कल कोरोना नामक प्रकृतिक आफत को झेल रहे हैं | लाखों लोगों को इस बीमारी ने अपनी चपेट में ले लिया है | मगर जाने अनजाने हम सब ही इस आपदा के ज़िम्मेवार भी हैं|प्रकृति के विकट रूप पर कविता "ये कैसी आफत आई है " हमारी इस रचना में इसी विषय को बताया जा रहा है |
ये कैसी आफत आई है
ये कैसी आफत आई
कोई मिलता नहीं उपाय है
कोई मिलता नहीं उपाय
इसने बनाया छोटे को भी
मजबूर
वो भी अब रोता जो कल करता
गुरूर
इस ने तुम्हें घरों में कैदी बनाया
कुछ तो गलत किया होगा सब
करो भरपाई
क्यो ना सोचा हवाओं में जब
जहर था घोला
काटे हर दिन पेड़ और पशुओं
को मारा
क्या
तुमने अकेले धरती की रजिस्ट्री कराई
क्या तुमने अकेले धरती की
रजिस्ट्री कराई
सब पक्षी तड़पते थे तुम्हें
दे दे दुहाई
अब लगता है कैसा जब तुम्हारी
शामत आई
सिर्फ अपनी सुविधा की तुमने
चीजें जुटाई
और प्रकृति की एक- एक
श्रंगार चुराई
बस नाम को कहते तुम इसे
धरती माँ
माता संग तुमने ना सच्ची
प्रीत निभाई
अब भी बहुत कुछ बच सकता
अगर हमने सुधरने की राह अपनाई
तो आज से नई शुरवात करो
अगर चाहते आने वाली पीढ़ी की
भलाई
तुम पेड़ लगाओ सौर ऊर्जा
अपनाओ
पालिथीन छोड़ो घर जूट बैग
ले आओ
सब जीवों से भी प्रेम करो
सब थोड़ा थोड़ा दो जिस से वो
भी जी पाएँ
हमेशा बाइक ही नहीं पैदल भी
चलो
कहीं जाना सब को हो तो गाड़ी
पूल करो
छोटी बातों की होती है
अहममियत बड़ी
क्योंकि हमने सुना था वो है
बिलकुल सही
एक-एक बूंद से ही तो भरती
है मटकी
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