कविता "मंजिल की तलाश में"

मंजिल की तलाश में मैं 
भटक रहा हूँ इधर-उधर
न जाने कब शाम हुई 
न जाने कब हुई सहर
न जाने कब हंसी थी आई
अब दर्द बढ़ रहा हर पेहर 
डर लगता है के ये जिंदगी
बन जाये न मुश्किल सफ़र
जिसे समझा हमने हमनवा 
वही न समझे अब हाल-ऐ-दिल
न जाने ये किस्मत को है मंजूर
या अरमानो से खेलना बना
हमारे यार का पसंदीदा दस्तूर
इस ही कशमाकश में बीत रही है
जिस्म की हर एक सांस 
होकर के बड़ी ही मजबूर



2 टिप्‍पणियां:

  1. इंसान भटकता है ज़िंदगी भर पर मंज़िल घुमाती है उसे पूरी उम्र ... कहानी साँसों के खेल की ...

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