धरती पर कविता "धरती माँ"

धरती पर कविता "धरती माँ" 

धरती पर कविता "धरती माँ"

धरती पर कविता "धरती माँ"

धरती माँ तुम 
दिखती थी
कितनी प्यारी
हर रंग से
भरी थी चूनर
तब तुम्हारी
अपने आँचल में
छुपाकर करती
थी ,तुम हम 
सबकी स्नेह से 
पहरेदारी,जीने के 
लिए सब ही 
जरुरी स्रोत थे
हमको दिए 
जिससे संवर पाई
थी ,दुनिया भी हमारी
कितना सुन्दर और
 स्वच्छ  वातावरण
तुमने हमे दिया
था कभी
पर हमने लालच 
के वशीभूत होकर
तुम पर ही वार
कर दिया 
बेटे(वृक्ष ) तुम्हारे काट
दिये और बेटी (नदी) भी
अपवित्र कर डाली 
अब हमने ही 
तुम्हारी सखाओं (हवा)
को गंदे धुंए 
से  भर दिया 
फिर भी हम 
कहते हैं के 
इसमें गलती 
क्या है हमारी
अपनी माँ का एक-एक
श्रृंगार(पर्वत और पशु -पक्षी )
हमने ही तो  छीन लिया
माँ फिर भी
निभा रही है
रो- रो के अपनी 
जिम्मेवारी
पर अब हमारी
माँ को. हमारी जरुरत
है आ पड़ी
करो वो सब काम
मिल-जुल कर जिससे
माँ फिर पहले
की तरह खुशहाल
दिखे,क्योंकि सिर्फ 
बूढ़े कंधे पर नहीं
दे सकते,हम
यह भारी जिम्मेवारी 
पोंछ दो इन आँसुओं 
को तुम माँ के 
समय अब आ गया 
अगर माँ ही नहीं रहेगी 
तो न होगा अस्तित्व 
भी हम सबका 

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4 टिप्‍पणियां:

  1. सत्य है एक एक शब्द इस रचना का ... हमने जो खुद को इस धरती की संतान मानते हैं ... जितना बर्बाद किया है धरती को उतना तो किसी भी जीव ने नहीं किया ... काश अब भी जाग जाएँ हम ...

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