कविता"बस एक ख़ुशी की आस है"



बस एक ख़ुशी की आस है

"निम्नलिखित  कविता में एक हताश आदमी के दुख  का वर्णन है"


ना भूख ना प्यास है
बस एक ख़ुशी की आस है
जिस पैसे के लिए सब को छोड़ा
वो भी बहुत अब पास है
पर ना जाने तब भी यह दिल
 क्यों दुखी और उदास है

पहले जो थोडा भी था 
वो लगता बड़ा ही ख़ास था
पर अब सब कुछ होकर भी
क्यों खाली मेरे हाँथ हैं
बड़ी विचित्र ये बात है
न कोई मेरे साथ है
बस एक ख़ुशी की आस है
बस एक ख़ुशी की आस है

मैंने आगे बढ़ने के लिए
हर रिश्ते को नज़र-अंदाज़ किया
कब बच्चे बड़े हो गए
ये भी न कुछ पता चला
अब अकेले जीना जैसे
एक दिन एक पल  बेकार है
बस एक ख़ुशी की आस है
बस एक ख़ुशी की आस है
"पत्नी ने नहीं कुछ माँगा
बस मुझको था फितूर चढ़ा
सबसे आगे मैं निकल सकूँ
बस ये ही हरदम रहा सोचता
जाने कितनी बार मैंने
घर आने को मना किया
फिर भी उसने जाग -जाग कर
 मेरा रास्ता था देखा

समय न किसी को दिया 
बस पैसे की दे दी गड्डी
स्नेह भी चाहते थे सभी
मैंने  नहीं  सोचा कभी
अब दूर हो गये हैं सभी
मैं नशे में ही रहा डूबा
अपनी बनाई शान को
सब कुछ ही तो समझता रहा"

पर अब चला है मुझको पता 
परिवार बिना तो महल भी 
लगता वीराना संसार है
न हो साथ कोई हमदम तो
जो सब जोड़ा वो
कौड़ी के भाव है
हाँ लगता कौड़ी भाव है
 
अर्चना


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