कविता" अन्नदाता"


अन्नदाता







"इस कविता में एक किसान का दुख वर्णित किया गया है"

 
 

कृषि-प्रधान देश में यह कैसा वक़्त आ गया
अन्न-दाता अब तो खुद ही अन्न को तरस गया

कभी मौसम की मार से
कभी कीटों के प्रहार से
और फ़सल के मूल्य के ह्रास से
मजबूर हुआ बहुत ही
और खुदखुशी को तैयार हो गया
अन्न-दाता अब तो खुद ही अन्न को तरस गया


कभी सुपरमार्किट के फैलाव से 
कभी खाद्य-सामग्री के आयात से
और मोजरेला, पामेजान के बढ़ते इस्तेमाल से
दुखी हुआ बहुत ही 
और पलायन को तैयार हो गया
अन्न-दाता अब तो खुद ही अन्न को तरस गया


 
कभी सत्ता के झूठे वादे से
कभी बुनियादी आभावों से
और दफ्तरों के ढीले काम से 
थक -हार गया बहुत ही
और बेहाल हो गया
अन्न-दाता अब तो खुद ही अन्न को तरस गया
 

अर्चना





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