कविता"सखी तुझको मन की"

सखी तुझको मन की



"इस कविता में एक हताश युवती अपनी सखी को अपने दुखों के बारे में बता रही है"



सखी तुझको मन की मैं बताऊँ
अब सजना को मैं नहीं भाऊँ
आई दूसरी नारी है जीवन में
मैं बस राहों में नैन बिछाऊँ

ऐसा जादू किया है उसने
सालों का वो प्रेम हैं भूले
मेरी सारी खुशियाँ लेकर
 जाने हैं वो कैसे जीते

कभी जो मेरे पास सजन आयें
दिल अपना पर साथ न लायें
बस झूठे वादे दे जाएँ
और रातों की नींदें ले जाएँ

कब तक मन को मैं बहलाऊं
कोई रास्ता भी समझ न पाऊं
या उनको मैं त्याग दूँ
या प्राणों को छोड़ चली जाऊं

ऐसी है यह प्रेम की पीड़ा
कोई दवा भी काम न आये
तू भी कुछ ना बात सुझाये
मेरे दुःख को न है बटाये

क्या मैं हो गयी इतनी बैरन
के जग मुझ में ही कमी बताये
कोई नहीं उनको समझाये
की जल्दी घर वापस आयें
 
अर्चना
 











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