कविता "मेरी छत की छोटी सी मुंडेर पर"


मेरी छत की छोटी सी मुंडेर पर


"यह कविता मैंने अपने आस-पास के पंछियों के बारे में लिखी है"


मेरी छत की

छोटी सी मुंडेर पर
हर सुबह
महफ़िल है 
जुड़ जाती 
दाने खाने की
खातिर परिंदों
की जब टोलियाँ  
हैं आती
चिड़ियाँ आातीं 
दाना खातीं
फुदक -फुदक 
फिर गाना भी
गातीं लगती हैं 
बहुत ही प्यारी 
काली- भूरी और
छोटी बड़ी वाली
साथ ही आते
जंगली कबूतर
खायें दाना फिर
 नहाते भी जमकर
पर एक आहट भी 
होने पर 
उड़ जाते हैं
ये तो डरकर
गुटर -गुटर गू
और चूं -चूं से 
होती मेरी 
सुबह मनोहारी
मेरी छत की
छोटी सी मुंडेर पर
हर सुबह
महफ़िल है 
जुड़ जाती 
(अर्चना)



3 टिप्‍पणियां:

  1. पर एक आहट भी
    होने पर
    उड़ जाते हैं
    ये तो डरकर
    आजकल इतना शोर हैं फ़िज़ाओं में, शहर से परिंदे कहीं खो से गए हैं। इससे तो अच्छे गाँओं हैं जहाँ आज भी पानी रख देते हैं लोग घरों की छत पर, परिंदों के लिए।
    http://savanxxx.blogspot.in

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  2. परिंदों के लिए आज भी पानी रख देते हैं

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